Tuesday 11 July 2017

पद्माकर-के-काव्य-में-अध्यात्म-और-इसका-स्वरूप



पद्माकर के काव्य में अध्यात्म

जब श्रद्धावान मनुष्य इंद्रीय विग्रह तथा ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है तब इसे ब्रम्ह मात्मैक्य रूप ज्ञान का अनुभव होता है, जिससे उसे अविलंब पूर्ण शांति उपलब्ध होती है।
निर्गुण ब्रम्ह उपासक कबीर का कथन है कि माया के पास में पड़े हुए जीव का उद्धार केवल भगवद् भक्ति से ही नहीं हो सकता है। भक्ति के बिना माया जति संशय का दुख दूर नहीं हो सकता और न मुक्ति ही मिल सकती है। भाव भक्ति के निा भव सागर से पार जाना असंभव है।

कवि पदमाकर ने अपने रस निरूपण संबंधी ग्रंथ जगविदो में केवल नौ रसों को ही स्वीकारा है अर्थात वे भक्ति की महत्ता को स्वीकार करते हुए भी उनकी स्थिति शांत रस के अंर्गत करते हैं।
कवि ने अपने जीवन के अंतिम समय में कुष्ट रोग से अक्रांत होने पर उससे मुक्ति प्राप्ति हेतु गंगालहरी का सृजन किया था, इसीलिए कवि दृढ़ विश्वास के साथ गंगा की शरण में जाने से पूर्व अपने पापों को चुनौती देता हुआ कहता है ए रे दगादार मेरे पातकअपार तोहि, गंगा कछार में पछार धार करिहों।

पाप के इस वर्णन में जो गतिशीलता दिखाई देती है, वहां भक्ति की दृढ़ भावना संबलित है। गंगा के प्रति अपनी अटूट आस्था के कारण कवि स्थान-स्थान पर न केवल पाप की अवहेलना करता चलता है, अपितु स्थान पर समदूतों और उनके मालिक रामराज की उपेक्षा करने तक में उसे कहीं हिचक नहीं होती थी। कवि अन्यत्र कहता है गंगा के तीर तक पहुंचते ही पापों के पुंज लूट जाते हैं। प्रस्तुत छंद से प्रतीत होता है कि पदमाकर ने भक्त का हृदय पाया ता। उनकी भक्ति में गंभीर भावना है। इस भाव की निमग्नता के पूर्व उन्हें स्थायी निर्वेद हो गया था, जिसे प्रेरित होकर उन्होंने पश्चाताप पूर्वक कहा है।

भोग में रोग को पाया संयोग में वियोग को पाया। भोग साधन में काया का क्लेश पाया। वेद पुराण पढकर ज्ञान का अभियान हुआ और शास्त्रार्थ में स्वमत मंडन तथा परमत खंडन के हेतु विवाद में लगा रहा। जीवन ऐसे ही व्यर्थ गया। मैं पदमाकर अखंड आनंद प्रदाता राम का नाम न गाने पाया इसका पश्चाताप है।

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